मगध का उत्कर्ष-
प्राचीन समय में किसी राज्य के शासक अपने राज्य को सुरक्षित तथा उसकी सीमाओं का विस्तार करने पर विशेष बल देते थे जिससे उनके समीपवर्ती राज्यों से संघर्ष हुआ करते थे और जो राजा एवं राज्य शक्तिशाली होता था वह अन्य राज्यों पर अधिकार स्थापित कर उसे अपने राज्य में मिला लेता था।
प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य मगध का था जिसके अंतर्गत वर्तमान बिहार के पटना एवं गया के आसपास के क्षेत्र सम्मिलित थे। मगध के राजाओं ने अपने आसपास के राज्यों को जीतकर उन्हें अपनी सीमा में मिला लिया था जिससे मगध एक शक्तिशाली राज्य के रूप में स्थापित हुआ।
मगध के उत्कर्ष के कारण-
मगध एक विस्तृत एवं शक्तिशाली राज्य के रूप में स्थापित हो सका तो उसके कारण निम्नलिखित थे-
1.भौगोलिक कारण-
० मगध गंगा नदी के मैदानी क्षेत्र में स्थित था जिससे उपजाऊ मैदान होने के कारण खेती करने की सुविधा थी।
० छोटा नागपुर पठार के समीप स्थित होने के कारण वहां से लौह अयस्क एवं अन्य संसाधन आसानी से उपलब्ध हो जाते थे जिससे हथियार एवं कृषि यंत्रों को आसानी से बनाया जा सकता था।
० आसपास जंगली क्षेत्र होने के कारण लकड़ी आसानी से प्राप्त हो जाती थी।
० इसकी प्राचीन राजधानी राजगृह/गिरिव्रज पांच पहाड़ियों से घिरी हुई थी तथा पाटलिपुत्र नदियों के संगम पर एक जल उद्योग की भात सुरक्षित था।
० नदियों के कारण जलमार्गों की सुविधा उपलब्ध थी।
2. आर्थिक कारण- इस समय तक लौह के प्रयोग कारण कृषि कार्य करना आसान था तथा मैदानी क्षेत्र होने के कारण अधिशेष कृषि उत्पादन होता था जिससे मगध के राजाओं को शक्तिशाली सेना रखने एवं व्यापार वाणिज्य में सहायता मिली। इस समय शहरों के उदय एवं मुद्रा का प्रचलन बढ़ने से व्यापारिक सुविधाएं बढ़ी।
3. राजनीतिक एवं प्रशासनिक कारण- मगध के राजा योग्य एवं शक्तिशाली थे तथा उन्होंने सेना को सुदृढ़ करके युद्ध जीतकर तथा प्रशासनिक कूटनीति जैसे विवाह संबंधो द्वारा अपने राज्य का विस्तार किया। प्रशासनिक ढांचा मजबूत होने के कारण मगध विस्तार में अत्यधिक मदद मदद मिली।
नोट:-
1. मगध का संस्थापक बृहद्रथ था जिसके पुत्र जरासंघ ने आसपास के राज्यों को जीतकर मगध में मिला लिया था।
2. मगध पर जिन वंशो ने प्रमुख रूप से शासन किया था उनका क्रम इस प्रकार है-
० हर्यंक वंश(544 ई०पू०- 412 ई०पू०)
० शिशुनाग वंश (412 ई०पू० - 344 ई०पू०)
० नंद वंश(344 ई०पू० - 322 ई० पू०)
० मौर्य वंश(322 ई०पू० - 185 ई० पू०)
-- हर्यंक वंश(544 ई०पू०- 412 ई०पू०) --
हर्यक वंश मगध साम्राज्य का प्रथम राजवंश था इसे 'पितृहंता वंश' के रूप में भी जानते हैं क्योंकि इसमें पुत्र के द्वारा अपने पिता की हत्या करके राजगद्दी को प्राप्त किया जाता था। इस वंश में निम्नलिखित राजा हुए-
बिम्बिसार-
1. बिम्बिसार हर्यक वंश का संस्थापक था तथा इसने 544 ईसा पूर्व में इस वंश की स्थापना की थी।
2. इसने राजगृह या गिरिब्रज नगर की स्थापना कर उसे अपनी राजधानी बनाया था।
3. यह प्रथम राजा था जिसने वैवाहिक संबंधों को स्थापित कर राज्य विस्तार की नीति अपनाई जिसके अंतर्गत उसने निम्नलिखित विवाह किए-
० महाकोशला से विवाह किया ,जो कि कौशल राजा प्रसेनजित की बहिन थी।
० चेल्लना से विवाह किया ,जो कि वैशाली के राजा चेटक की पुत्री थी।
० क्षेमा से विवाह किया ,जो मद्र अर्थात पंजाब देश की राजकुमारी थी।
4. इसके राज दरबार में राजवैद्य जीवक रहता था जिसे इसलिए महात्मा बुद्ध की सेवा के लिए भेजा था इसके अतिरिक्त जीवक को इसने अवन्ति के राजा प्रद्योत( जो कि पांडु रोग से ग्रसित थे) के चिकित्सा उपचार के लिए भेजा था।
5. बिंबिसार स्थाई सेना रखने वाला प्रथम राजा था।
6. बिंबिसार गौतम बुद्ध का मित्र और संरक्षक था तथा विनयपिटक के अनुसार इसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था।
7. बिंबिसार ने ब्रह्मदत्त को युद्ध में पराजित कर अंग राज्य को मगध में मिला दिया था।
8. बिंबिसार की हत्या उसके पुत्र अजातशत्रु द्वारा 492 ई०पू० में की गई और फिर अजातशत्रु राजा बना।
अजातशत्रु-
1. अजातशत्रु को कुणिक उपनाम से भी जाना जाता है।
2. अजातशत्रु एक शक्तिशाली राजा था तथा उसने युद्ध जीतकर कर अपना राज्य विस्तार किया इस प्रकार उसने निम्नलिखित राज्यों को जीतकर अपने अधीन कर लिया-
० उसने लिच्छवि को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया अजातशत्रु के सुयोग्य मंत्री बस्सकार ने लिच्छवि राज्य में फूट डालकर उसकी जीतने में सहायता की।
० उसने काशी को अपने राज्य में मिलाया(कौशल राजा ने अपनी बेटी का विवाह अजातशत्रु से कर काशी को दहेज में दिया था)
० उसने मल्ल संघ पर विजय प्राप्त की तथा उस पर अपना अधिकार स्थापित किया।
3. अजातशत्रु महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध का समकालीन था।
4. आरंभ में उसकी निष्ठा जैन धर्म के प्रति थी परंतु बाद में उसने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया।
5. इसी के शासनकाल में महात्मा बुद्ध को महापरिनिर्वाण(483 B.C) तथा महावीर स्वामी को कैवल्य प्राप्त हुआ।
6. अजातशत्रु के समय ही राजगृह के सप्तपर्णी गुफा में प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ।
उदयन(उदायिन)-
1. यह अपने पिता अजातशत्रु की हत्या कर गद्दी पर बैठा।
2. इसने पाटलिपुत्र नगर की स्थापना की तथा उसे अपनी राजधानी बनाया। पाटलिपुत्र गंगा एवं सोन के संगम पर था।
3. उदयन के उत्तराधिकारी अनिरुद्ध,मंडक और नागदशक हुए जो कि कमजोर शासक थे।
4. हर्यक वंश का अंतिम राजा नागदशक हुआ इसकी हत्या उसके अमात्य शिशुनाग ने 412 ई० में कर दी तथा शिशुनाग वंश की स्थापना की।
- शिशुनाग वंश (412 ई०पू० - 344 ई०पू०) -
शिशुनाग-
1. यह शिशुनाग वंश का संस्थापक था।
2. शिशुनाग ने अवन्ति राज्य को जीतकर मगध में मिला लिया।
3. इसने अपनी राजधानी वैशाली को बनाया।
कालाशोक-
1.यह शिशुनाग का पुत्र था जो शिशुनाग के बाद राजा बना।
2. इसने वैशाली के स्थान पर पुनः पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाया।
3. इसके समय की एक महत्वपूर्ण घटना यह है कि इसके शासनकाल में द्वितीय बौद्ध संगीति(383 ई०पू०) का आयोजन वैशाली में हुआ।
नोट:- नागवंश का अंतिम राजा नंदिवर्धन था जिसकी मृत्यु के बाद नागवंश समाप्त हो गया और नंद वंश की शुरुआत हुई।
- नंद वंश(344 ई०पू० - 322 ई० पू०) -
महापदमनंद-
1. नंद वंश का संस्थापक एवं एक शक्तिशाली राजा था।
2. इसे "सर्वक्षत्रान्तक" एवं "उग्रसेना"(विशाल सेना के कारण) जैसी उपाधियों से विभूषित किया गया था।
3. यह भारत का प्रथम राजा था जिसने "एकराट" की उपाधि धारण की थी।
4. खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख से पता चलता है कि महापदमनंद ने कलिंग पर विजय प्राप्त की थी तथा कलिंग से जिनसेन(जैन) की मूर्ति को मगध लाया था।
5. हाथीगुंफा अभिलेख से ही इस बात की भी जानकारी मिलती है कि नंदराजा ने कलिंग में एक नहर का भी निर्माण करवाया था।
6. महापद्मनंद को 'केंद्रीय शासन पद्धति के जन्मदाता' के रूप में भी जाना जाता है
नोट:- जैन ग्रंथों(परिशिष्ट पर्व)के अनुसार महापदमनंद निम्न कुल से संबंधित था तथा नाई जाति का था।परंतु पुराणों में महापदम नंद को भार्गव अर्थात परशुराम का अवतार बताया गया है।
घनानंद-
1. यह नंद वंश का अंतिम शासक था।
2. इसे इतिहास में एक क्रूर शासक के रूप में जाना जाता है तथा इसकी शासन व्यवस्था काफी कठोर थी।
3. घनानंद के दरबार में चाणक्य रहते थे एकबार धनानंद ने उन्हें काफी अपमानित किया जिससे वह दरबार छोड़ कर चले गए और चंद्रगुप्त मौर्य के साथ मिलकर घनानंद के साम्राज्य का अंत किया।
4. घनानंद के समय में ही भारत की उत्तरी पश्चिमी सीमा पर सिकंदर का आक्रमण(326 ई०पू०)होता है।
नोट:- नंद शासक जैन धर्म के अनुयायी थे।घनानंद के जैन अमात्य शाकटाल तथा स्थूलभद्र थे।
- मौर्य वंश(322 ई०पू० - 185 ई० पू०) -
मौर्य वंश मगध का एक शक्तिशाली एवं महान राजवंश था जिसकी स्थापना 322 ई०पू० में चंद्रगुप्त मौर्य ने अंतिम नंद शासक घनानंद को पराजित कर की,इस कार्य में उसकी सहायता उसके गुरु चाणक्य ने की थी।
चंद्रगुप्त मौर्य(322 ई०पू०- 298 ई०पू०)-
1. चंद्रगुप्त मौर्य प्रथम शासक था जिसने एक विस्तृत साम्राज्य पर शासन किया था उसका साम्राज्य पश्चिम में अफगानिस्तान से लेकर पूर्व में बंगाल तक तथा उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कर्नाटक तक फैला हुआ था।
2. चंद्रगुप्त मौर्य की उत्पत्ति के विषय में विवादित मत है जहां बौद्ध एवं जैन ग्रंथों ने उसे क्षत्रिय माना है वही पुराण एवं मुद्राराक्षस उसे शुद्र बताते हैं।
3. यूनानी ग्रंथों में चंद्रगुप्त को सेन्ड्रोकोट्सऔर ऐंड्रोकोट्स कहा गया है उसकी चंद्रगुप्त मौर्य के रूप में पहचान सर्वप्रथम विलियम जोंस ने की थी।
4. चंद्रगुप्त मौर्य का सेल्यूकस निकेटर(सिकंदर का सेनापति) से 305 ईसा पूर्व में हिंदुकुश पर्वत की सीमा पर युद्ध हुआ जिसमें सेल्यूकस पराजित हुआ। इसके बाद उसने अपनी पुत्री हेलेना का विवाह चंद्रगुप्त मौर्य से कर दिया तथा मेगस्थनीज को चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में भेजा।
5. चंद्रगुप्त मौर्य के निर्देश पर सौराष्ट्र के गवर्नर पुष्य गुप्त ने गिरनार पहाड़ी पर(गुजरात) सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था।
6. जस्टिन ने सिकंदर और चंद्रगुप्त मौर्य की भेंट का वर्णन किया है परंतु इतिहासकारों में इस पर एकमत नहीं हैं।
7. चंद्रगुप्त मौर्य अपने जीवन के अंतिम समय में भद्रबाहु के प्रभाव से जैन धर्म का अनुयाई बन गया तथा उसने 298 ईसा पूर्व में श्रवणवेलगोला में संलेखना विधि( उपवास द्वारा शरीर त्याग) द्वारा अपना शरीर त्याग दिया।
8. प्रथम जैन संगीति का आयोजन चंद्रगुप्त मौर्य के समय पाटलिपुत्र में हुआ था।
बिन्दुसार(298 ई०पू०- 273 ई०पू०)-
1. यूनानी लेखकों ने बिंदुसार को अमित्रोचेडस(अमित्रघात) कहा है।
2. जैन ग्रंथों में बिन्दुसार को सिंहसेन कहा गया है।
3. बिंदुसार आजीवक संप्रदाय का अनुयायी था जिसकी स्थापना मक्खलि गोशालने की थी। आजीवक संप्रदाय में बिंदुसार को एकदण्डी कहा गया है।
4. इसके समय में तक्षशिला में दो विद्रोह हुए जिसे दबाने के लिए इसने पहले सुसीम और फिर अशोक को भेजा था जिसे अशोक ने सफलतापूर्वक दबा दिया।
5. बिंदुसार के विदेशी राजाओं के संबंध में में भी हमें जानकारी प्राप्त होती है उसने सीरिया के राजा एण्टियोकस से तीन चीजों की मांग की थी- प्रथम - सुखी अंजीर ,द्वितीय- अंगूरी शराब, तृतीय- दार्शनिक। जिसमें से सुखी अंजीर और अंगूरी शराब को एण्टियोकस ने बिंदुसार के लिए भेजा था परंतु दार्शनिक को नहीं भेजा।
6. सीरिया के राजा एण्टियोकस ने अपने दूत डाइमेकस को बिंदुसार के दरबार में भेजा था।
7. प्लिनी के अनुसार मिस्र के राजा टॉलमी द्वितीय फिलाडेलफस ने राजदूत डायनोसिस को बिंदुसार के दरबार में भेजा था।
8. बिन्दुसार को दो सागरों अर्थात बंगाल की खाड़ी और अरब सागर का विजेता कहा जाता है।
अशोक(273 ई०पू०- 232 ई०पू०)-
बिंदुसार की मृत्यु 273 ईसा पूर्व में हुई, उस समय अशोक अवंति का गवर्नर था। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार अशोक के 99 भाई थे और बिंदुसार की मृत्यु के बाद अशोक को गद्दी प्राप्त करने के लिए अपने भाइयों से संघर्ष करना पड़ा। अशोक ने अपने भाइयों की हत्या करके 269 ईसा पूर्व में अपना राज्याभिषेक किया।
1. मास्की तथा गुर्जरा अभिलेखों में अशोक का नाम अशोक मिलता है।
2. प्रारम्भ में अशोक के प्रधानमंत्री चाणक्य थे जिन्होंने 3 मौर्य राजाओं का शासनकाल देखा था,बाद में राधा गुप्त अशोक के प्रधानमंत्री बने।
3. कलिंग युद्ध- राज्याभिषेक के 8वें वर्ष(261ई०पू०) अशोक ने कलिंग विजय प्राप्त की जिसमें एक लाख से अधिक लोगों की मृत्यु हुई तथा लाखों लोग बंदी बनाए गए इन घटनाओं को देखकर अशोक का ह्रदय द्रवित हो उठा और कलिंग युद्ध के बाद उसने युद्ध त्याग दिया अर्थात उसने भेरीघोष के स्थान पर धम्मघोष की नीति अपनाई।अपने 13 वें शिलालेख में अशोक ने यह बताया है कि वह कलिंग युद्ध के बाद धम्म नीति का अनुसरण करने लगा।
4. दिव्यावदान के अनुसार अशोक को बौद्ध धर्म में उपगुप्त नामक बौद्ध भिक्षुओं ने दीक्षित किया था।जबकि दीपवंश और महावंश के अनुसार अशोक को निग्रोध नामक 7 वर्षीय बौद्ध भिक्षु ने बौद्ध धर्म में दीक्षित किया था।
5. तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन अशोक के समय में पाटलिपुत्र में हुआ था।
6. अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र तथा अपनी पुत्री संघमित्रा को बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के लिए श्रीलंका भेजा।
नोट:- मौर्य वंश का अंतिम शासक बृहद्रथ था जिसकी हत्या 185 ईसा पूर्व में उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग द्वारा कर दी गई और पुष्यमित्र शुंग ने 'शुंग वंश' की स्थापना की।
अशोक की धम्म नीति-
कलिंग विजय के बाद अशोक ने युद्ध नीति को त्याग कर धम्म नीति को अपना लिया जिसकी प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
1. धम्म नीति नैतिकता ,अहिंसा ,सदाचार ,सहिष्णुता एवं प्रेम पर बल देने वाली नीति थी।
2. यह नीति सभी धर्मों का सार थी जिसमें उस समय के सभी धर्मों के नैतिक तत्वों को समाहित किया गया था।
3. इसके अंतर्गत उसने धर्म प्रचार के लिए धम्म महामात्रों की नियुक्ति की।
4. उसने अपने पुत्र महेंद्र तथा अपनी पुत्री संघमित्रा को बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए श्रीलंका भेजा।
5. धम्म नीति का अनुसरण करते हुए अशोक ने पशुबलि, मांसाहार आदि पर रोक लगा दी।
6. धर्म प्रचार के लिए उसने स्तूप ,शिलालेख ,स्तंभ आदि का निर्माण अपने राज्य के विभिन्न हिस्सों में करवाया।
7. अशोक ने स्वयं धार्मिक यात्राएं की।अपने राज्याभिषेक के दसवें वर्ष वह बोधगया की यात्रा पर गया इसके बाद उसने क्रमशः कुशीनगर,लुंबिनी, कपिलवस्तु, सारनाथ और श्रावस्ती की यात्रा की।
8. इस नीति के अंतर्गत उसने लोक कल्याणकारी कार्यों जैसे कुओं,सरायों ,सिंचाई के साधन एवं वृक्षारोपण आदि को बढ़ावा दिया।
अशोक के अभिलेख-
अशोक के अभिलेख अशोक के शासनकाल और मौर्य साम्राज्य के विषय में जानने के प्रमुख स्रोत हैं जिनकी महत्वपूर्ण विशेषतायें इस प्रकार हैं-
1. अशोक के अभिलेख को सर्वप्रथम टी. कैंथलर ने 1750 ईस्वी में खोजा था।
2. इन अभिलेखों को पढ़ने का श्रेय जेम्स प्रिंसेप को जाता है जिसे उन्होंने 1837 ईस्वी में प्रथम बार पढ़ा था।
3. इन अभिलेखों की भाषा प्राकृत थी तथा अधिकांश अभिलेखों की लिपि ब्राह्मी थी इसके अतिरिक्त खरोष्ठी,ग्रीक आरमेइक लिपि में भी अभिलेख मिले हैं।
नोट:- खरोष्ठी लिपि दाएं से बाएं ओर लिखी जाती थी जबकि ब्राह्मी लिपि बाएं से दाएं ओर लिखी जाती थी।
4. अशोक के अभिलेखों को मुख्यतः तीन भागों में बांटा जा सकता है- शिलालेख ,स्तंभ लेख एवं गुहा लेख।
5. शिलालेखों को वृहद शिलालेख तथा लघु शिलालेख में बांट सकते हैं वृहद शिलालेखों की संख्या 14 है जो 8 स्थानों से प्राप्त हुए हैं।ये निम्न हैं-
शहवाजगढ़ी- पाकिस्तान से प्राप्त होता है।
मनसेहरा- ये भी पाकिस्तान से प्राप्त होता है।
कालसी- उत्तराखंड के देहरादून से
गिरनार- सौराष्ट्र,गुजरात
धौली और जौगढ़- दोनों ओडिशा से
एर्रगुडी- कर्नूल,आंध्र प्रदेश
सोपारा- ठाणे,महाराष्ट्र
नोट:- पाकिस्तान से प्राप्त शहवाजगढ़ी एवं मनसेहरा शिलालेखों लिपि खरोष्ठी है जबकि अन्य की ब्राह्मी लिपि है।
इसके अतिरिक्त लघु शिलालेख मास्की(कर्नाटक), ब्रह्मगिरी (कर्नाटक) अहरौरा (उत्तर प्रदेश),सासाराम (बिहार) रुपनाथ(मध्यप्रदेश) आदि स्थानों से प्राप्त हुए है।
6. 14 वृहद शिलालेखों को प्राप्त करने के क्रम में क्रमशः प्रथम, द्वितीय ,तृतीय ,चतुर्थ.........शिलालेखों की संज्ञा दी जाती है जिनसे हमें निम्नलिखित जानकारी मिलती है-
० प्रथम शिलालेख- पशुबलि की निंदा
० चौथा शिलालेख- इसमें अशोक भेरी घोष के स्थान पर धम्मघोष की घोषणा करता है।
० पाँचवां शिलालेख- धम्म महामात्रों की नियुक्ति की बात
० तेरहवां शिलालेख - कलिंग युद्ध एवं हृदय परिवर्तन का वर्णन
7. अशोक के स्तंभलेखों की संख्या 7 है जो छह विभिन्न स्थानों से प्राप्त हुए हैं। इनमें से लौरिया-अरराज ,लौरिया-नंदनगढ़ तथा रमपुरवा स्तंभ लेख चंपारण बिहार से मिले हैं।
8. इसके अतिरिक्त अन्य लघु स्तंभ लेख भी मिले हैं जिसमें सारनाथ स्तंभलेख अत्यधिक प्रसिद्ध है क्योंकि यही से हमारे राष्ट्रीय चिन्ह अशोक के सिंहस्तंभ को लिया गया है।
9. गुहा लेख- पहाड़ियों को काटकर गुफाओं का निर्माण किया जाता था। अशोक ने गया में बराबर पहाड़ियों को काटकर आजीवक संप्रदाय के अनुयायियों के लिए गुफाओं का निर्माण किया था यहां की दीवारों पर अशोक के लेख उत्कीर्ण मिले हैं।
नोट:- अशोक के पुत्र दशरथ ने गया में ही नागार्जुन पहाड़ियों को काटकर गुफाओं का निर्माण करवाया था।
स्तूप- स्तूप ऐसा स्थल होता है जहां बौद्ध धर्म के दार्शनिकों,गुरुओं आदि के अवशेष सुरक्षित रखे जाते थे जिससे यह एक धार्मिक स्थान होता था। अशोक को 84000 स्तूपों का निर्माता बताया जाता है। जिसमें से सांची स्तूप(रायसेन,मध्यप्रदेश),भरहुत स्तूप(सतना ,मध्यप्रदेश),धर्मराजिका स्तूप(तक्षशिला) आदि प्रसिद्ध हैं।
महत्वपूर्ण तथ्य-
1. रुम्मिनदेई स्तंभलेख(लुम्बिनी) पता चलता है कि अशोक अपने राज्याभिषेक के 20वें वर्ष यहां आया था जो कि गौतम बुद्ध की जन्मस्थली थी इसलिए उसने यहां एक बड़ी दीवार का निर्माण कराया तथा लुंबिनी गांव का धार्मिक कर माफ कर दिया गया और कर मात्र आठवां भाग लिया जाने लगा।
2. सभी शिलालेखों का विषय प्रशासनिक होता था परंतु रुम्मिनदेई का विषय आर्थिक था।
3.कौशांबी(जो कि इलाहाबाद के निकट है) लघु स्तंभलेख में कारूवाकी द्वारा दान दिए जाने का वर्णन किया गया है इसे 'रानी का अभिलेख' भी कहा जाता है।
मौर्य कालीन प्रशासनिक व्यवस्था-
मौर्य कालीन प्रशासनिक व्यवस्था की जानकारी हमें कौटिल्य के अर्थशास्त्र ,मेगस्थनीज की इंडिका तथा अशोक के अभिलेख एवं अन्य ग्रंथों से प्राप्त होती है।जिसकी प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं-
1.मौर्य कालीन प्रशासनिक व्यवस्था में राजा का पद सबसे ऊपर था तथा वह न्याय, प्रशासन ,सैन्य व्यवस्था सभी का प्रमुख होता था। इस प्रकार मौर्य काल में केंद्रीय शासन व्यवस्था दिखाई देती है।
2. राजा की उसकी प्रशासनिक कार्यों में सहायता करने के लिए मंत्री होते थे जिन्हें अमात्य कहा जाता था इसमें प्रधानमंत्री का पद सबसे महत्वपूर्ण था उदाहरण के लिए चाणक्य चंद्रगुप्त मौर्य का प्रधानमंत्री था।
3. इस समय विभिन्न विभागों के उच्च अधिकारियों को तीर्थ कहा जाता था। प्रमुख अधिकारी निम्नलिखित थे-
पण्याध्यक्ष- वाणिज्य विभाग का अध्यक्ष
सीताध्यक्ष- कृषि विभाग का अध्यक्ष
विविताध्यक्ष- चरागाहों का अध्यक्ष
अक्षपटलाध्यक्ष- महालेखाकार
सन्निधाता- राजकीय कोषाध्यक्ष
समाहर्ता- राजस्व विभाग का प्रधान
अकराध्यक्ष- खान विभाग का अध्यक्ष
नोट:- सरकारी या राजकीय भूमि को सीता कहा जाता था।
4. मौर्य साम्राज्य अतिविस्तृत था जिसे प्रशासनिक सुविधा के लिए प्रांतों में बांटा गया था इन प्रांतों को चक्र भी कहा जाता है प्रांतों का मुखिया राज्यपाल या गवर्नर होता था। सामान्यतः राजा के पुत्र ही राज्यपाल बनाए जाते थे। मौर्य साम्राज्य 5 प्रांतों में विभाजित था-
प्रान्त राजधानी
० उत्तरापथ ------------------------- तक्षशिला
० दक्षिणापथ ------------------------ स्वर्णगिरि
० अवन्ति --------------------------- उज्जयिनी
० प्राशी(पूर्वी भाग) ----------------- पाटलिपुत्र
० कलिंग ---------------------------- तोसली
5. यह प्रांत विषयों में बटे हुए थे प्रत्येक विषय का प्रमुख विषयपति या प्रादेशिक कहलाता था।
6. विषय के नीचे गांवों के समूह हुआ करते थे 10 गांव के समूह को के प्रमुख को गोप कहा जाता था।
7. प्रशासन की सबसे छोटी एवं निकली इकाई गांव थी जिसका मुखिया ग्रामिक कहलाता था।
8. मेगास्थनीज ने नगर प्रशासन के लिए 6 समितियों का उल्लेख किया है जिसमें प्रत्येक समिति में 5 सदस्य होते थे इस प्रकार 30 व्यक्तियों द्वारा नगर प्रशासन का संचालन किया जाता था प्रत्येक समिति अलग-अलग कार्यों को देखती थी।
9. सैन्य विभाग- मौर्य काल की सेना में गज,घुड़सवार ,रथ एवं पैदल चारों प्रकार की सेना सम्मिलित थी जिसका संचालन सेनापति द्वारा किया जाता था। सैन्य प्रबंधन के सर्वोच्च अधिकारी को अंतपाल कहा जाता था।
10. न्याय प्रशासन- न्याय विभाग का मुखिया राजा होता था परंतु इतने बड़े राज्य में न्याय व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए निचले स्तर पर न्यायिक अधिकारी होते थे। न्याय विभाग दो भागों में विभाजित था- दीवानी मामलों की सुनवाई जिन न्यायालयों में की जाती थी उन्हें धर्मस्थीयु न्यायालय तथा जिन अदालतों में फौजदारी मामलों की सुनवाई होती थी उन्हें कंटकशोधन कहा जाता था। कर चोरी करने वालों को मृत्युदंड तक दिया जाता था।
11. गुप्तचर व्यवस्था- मौर्य प्रशासन में गुप्तचरों को गूढ़ पुरुष भी कहा जाता था यह आंतरिक एवं बाहय दोनों प्रकार की सूचनाएं इकट्ठा करते थे। गुप्तचर दो प्रकार के थे-
संस्था- एक स्थान पर रहकर सूचना इकट्ठा करते थे।
संचार- यह घूम कर सूचना इकट्ठा करते थे।
मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था-
1. इस समय अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि था कृषि पर उत्पादन का 1/4 से 1/6 भाग कर के रूप में लिया जाता था।
2. राज्य के कुछ क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधाएं राज्य द्वारा उपलब्ध करवाई जाती थी ताकि कृषि कार्य सुचारु रुप से संपन्न हो सकें ऐसे क्षेत्रों से कर 1/3 भाग बसूला जाता था। इस सिंचाई कर को उदकभाग कहा जाता था।
3. व्यापार की दृष्टि से इस समय आंतरिक तथा बाहय दोनों प्रकार के व्यापार संचालित होते थे। पूर्वी तट पर ताम्रलिप्ति तथा पश्चिमी तट पर भड़ौच और सोपारा मुख्य बंदरगाह थे।
4. इस समय व्यापार में मुद्रा का प्रचलन था जिसे 'पण' कहा जाता था। कर्मचारियों को वेतन देने के लिए इसी का प्रयोग किया जाता था।
5. प्रमुख उद्योग वस्त्र उद्योग था इसके अतिरिक्त धातु उद्योग, चमड़ा उद्योग,जहाजरानी उद्योग एवं शराब उद्योग आदि प्रचलित थे।
मौर्यकालीन समाज-
1. कौटिल्य के अनुसार इस समय समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार भागों में बटा हुआ था। उसके अनुसार वर्णाश्रम की रक्षा करना राजा का कर्तव्य होना चाहिए।
2. यूनानी लेखक मेगास्थनीज ने भारतीय समाज को 7 जातियों में विभक्त किया है- दार्शनिक,किसान,अहीर, कारीगर ,सैनिक, निरीक्षक और सभासद।
3. मौर्य काल में स्त्रियों की स्थिति में कुछ सुधार हुआ। वह विधवा विवाह या पुनर्विवाह कर सकती थी परंतु कुल मिलाकर उनकी स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी विवाह के लिए दहेज की प्रथा भी प्रचलित थी।
4. वेश्यावृत्ति करने वाली महिलाओं को रूपाजीवा कहा जाता था इन वेश्याओं से राज्य को आय प्राप्त होती थी तथा गणिकाएं(वेश्याएं) राज्य के नियंत्रण में कार्य करती थी ।गणिकाओं से संबंधित अधिकारी को गणिकाध्यक्ष कहा जाता था।
5. दास प्रथा को लेकर विद्वान एकमत नहीं है कौटिल्य के अनुसार मौर्य काल में दास प्रथा थी जबकि मेगस्थनीज के अनुसार दास प्रथा नहीं थी।
7. मौर्य काल में बौद्ध धर्म काफी बढ़ गया था तथा राजाओं द्वारा इसे संरक्षण भी प्रदान किया गया था। इसके अतिरिक्त वैदिक धर्म भी काफी प्रचलित था परंतु उसमें कर्मकांड, यज्ञ आदि काफी बढ़ गए थे अर्थात उन पर बहुत बल दिया जाता था।
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