• 16.7.20

    आधुनिक भारत का आर्थिक इतिहास

    आधुनिक भारत का आर्थिक इतिहास-
    अंग्रेजों के भारत आगमन से पूर्व भारत कृषि प्रधान एवं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर था,परन्तु अंग्रेजों की भू राजस्व व्यवस्था, शोषणपरक आर्थिक एवं राजनीतिक नीतियां, हस्तशिल्प एवं अन्य उद्योगों की बर्बादी आदि ने भारत को आर्थिक रूप से विपन्न देशों की श्रेणी में खड़ा कर दिया। 
    ब्रिटिश उपनिवेशवाद:
    उपनिवेशवाद की शुरुआत समुद्री खोजों के युग के साथ होती है। इसके अंतर्गत एक शक्तिशाली एवं साम्राज्यवादी देश अन्य देशों पर अपना नियंत्रण स्थापित करता है और वहां के आर्थिक संसाधनों का दोहन अपने हितों को पूरा करने के लिए करता है। इस प्रकार एक उपनिवेश के हित मातृदेश( साम्राज्यवादी देश) के हितों के अधीन होते हैं।
    भारत में प्लासी के युद्ध के बाद अंग्रेजों के भारत में पैर मजबूती से जम गए तथा उन्होंने राजस्व संग्रहण एवं भारत की अर्थव्यवस्था को ब्रिटिश अर्थव्यवस्था के अंतर्गत लाने का कार्य किया।
    भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के तीन चरण देखे जा सकते हैं-
    1. प्रथम चरण(1757- 1813 ई०)- वाणिज्यिक चरण
    2. द्वितीय चरण(1813- 1858 ई०)- औद्योगिक चरण
    3. तृतीय चरण(1858- 1947 ई०)- वित्तीय चरण

    उपनिवेशवाद मूल रूप से आर्थिक संबंधो पर बल देता है परंतु इसके साथ ही यह राजनीतिक, प्रशासनिक ,सामाजिक एवं सांस्कृतिक नीतियों को भी प्रभावित करता है। इस प्रकार प्रथम चरण से लेकर तृतीय चरण तक हम देखेंगे की अंग्रेजों ने किस प्रकार आर्थिक उद्देश्यों को ही ध्यान में रखकर राजनीतिक,प्रशासनिक एवं सामाजिक नीतियों में बदलाव किये।

        प्रथम चरण(1757- 1813 ई०)- वाणिज्यिक चरण
     इस चरण में अंग्रेजों का मुख्य उद्देश्य भारत से अधिक से अधिक राजस्व संग्रहण(धन प्राप्त करना) करके उसे व्यापार में निवेशित करना था क्योंकि अंग्रेजों को भारतीय वस्तुओं को खरीदने के लिए अपने देश से कीमती धातुओं(बुलियन) को लाना पड़ता था इसलिए वह चाहते थे कि भारत से ही धन या राजस्व इकट्ठा करके उसे व्यापार में लगाया जाए।
     इसलिए इस तरह इस चरण में आर्थिक नीति के अंतर्गत धन की निकासी(राजस्व संग्रह द्वारा) ,बंगाल में हस्तशिल्प एवं उद्योगों का पतन पर बल देते हैं वहीं राजनीतिक एवं प्रशासनिक नीतियों में मात्र उतना ही परिवर्तन करते हैं ताकि उनके व्यापारिक हितों की पूर्ति हो सके। अपनी सामाजिक नीति के अंतर्गत वह परंपरागत भारतीय ढांचे को बनाए रखते हैं तथा सांस्कृतिक नीति के अंतर्गत भारतीय प्राच्यवाद की तारीफ करते हैं।

          द्वितीय चरण(1813- 1858 ई०)- औद्योगिक चरण
    इस समय तक  ब्रिटेन में औद्योगिक पूंजीवाद का उदय हो चुका था इसलिए इस चरण में अंग्रेजों का उद्देश्य था कि भारत से कच्चे माल का निर्यात किया जाए तथा इंग्लैंड में तैयार माल को भारतीय बाजार में बेचा जाए। अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह सभीनीतियों में परिवर्तन करते हैं।
    1813 का चार्टर एक्ट द्वारा कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार(चाय एवं चीन को छोड़कर) को समाप्त कर दिया जाता है तथा भारत से व्यापार का रास्ता सभी ब्रिटिश नागरिकों के लिये खोल दिया जाता है।
    इस चरण में आर्थिक नीति के अंतर्गत कृषि का व्यवसायीकरण, धन की निकासी,वि-औद्योगीकरण पर बल दिया जिससे उद्योगों का पतन, ग्रामीण क्षेत्रों में ऋण ग्रस्तता में वृद्धि होती है।राजनीतिक नीति के अंतर्गत इस समय भारत में साम्राज्य विस्तार को महत्व दिया ताकि अधिक से अधिक बाजार मिल सके। प्रशासनिक नीति के अंतर्गत समाज सुधार एवं परिवर्तन को लागू किया। सामाजिक एवं सांस्कृतिक नीतियों में भी बदलाव कर अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार, समाज सुधार के विभिन्न कानूनों को लागू करना, उदारवाद आदि पर बल देते हैं।

            तृतीय चरण(1858- 1947 ई०)- वित्तीय चरण
    1857 की क्रांति के बाद अंग्रेज अपनी नीतियों में बदलाव करते हैं।इस चरण में अंग्रेजों का मुख्य उद्देशय 1857 के विद्रोह की पुनरावृत्ति को रोकना था वहीं आर्थिक उद्देश्यों में की ब्रिटिश पूंजीपतियों की पूंजी का भारत के विभिन्न क्षेत्रों जैसे-रेल ,चायबागान,बैंक आदि में निवेश करना था
    अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अंग्रेज आर्थिक नीति के अंतर्गत भारत में ब्रिटिश पूंजी निवेश को बढ़ावा देते हैं जिससे गृहव्यय में वृद्धि होती है तथा भारतीय औद्योगीकरण को हतोत्साहित करते हैं।
    राजनीतिक एवं प्रशासनिक नीति के अंतर्गत साम्राज्य विस्तार की नीति को 1858 के एक्ट द्वारा त्याग दिया जाता है तथा वह भारतीय सामाजिक ढांचे में अहस्तक्षेप की नीति अपनाते हैं ताकि उन्हें किसी विद्रोह का सामना ना करना पड़े।
    इसी चरण में अंग्रेजों द्वारा फूट डालो और राज करो की नीति को बढ़ावा दिया जाता है।

                   अंग्रेजों की भू- राजस्व व्यवस्था-
    अंग्रेजों द्वारा अधिक से अधिक भू राजस्व इकट्ठा करने के लिए निम्नलिखित 3 भू-राजस्व प्रणालियां अपनाई गई-

                             - स्थायी बंदोबस्त-
    1लार्ड कार्नवालिस ने भू राजस्व की स्थाई बंदोबस्त प्रणाली को लागू किया इसे इस्तमरारी,मालगुजारी,जागीरदारी,बीसवेदारी आदि नामों से भी जाना जाता है।
    2. कार्नवालिस ने 1791 ई० में बंगाल में स्थाई बंदोबस्त की शुरुआत की थी जो कि प्रारंभ में बंगाल ,बिहार एवं उड़ीसा में दस वर्षीय बंदोबस्त था 1793 ईस्वी में इसे बोर्ड आफ डायरेक्टर्स की अनुमति से स्थाई कर दिया गया।
    3. ये बंदोबस्त ब्रिटिश भारत के लगभग 19% क्षेत्रफ़ल पर लागू था जिसके अंतर्गत बंगाल, बिहार, उड़ीसा ,उत्तर प्रदेश का वाराणसी तथा उत्तरी कर्नाटक आता था
    4. इस व्यवस्था के अंतर्गत जमीदारों के एक नए वर्ग को भूस्वामी घोषित कर दिया गया जिन्हें भूमि के लगान का 10/11 भाग कंपनी को देना होता था तथा 1/11 भाग में अपने पास रखते थे।
    5. इसके अंतर्गत भूमि को विक्रय योग्य बना दिया गया।
    6. इस व्यवस्था ने सरकार तथा किसानों के बीच संबंध को समाप्त कर दिया तथा वह जमीदारों को लगान अदा करने लगे।
    7.इसी व्यवस्था के अंतर्गत 1794 ईस्वी में सूर्यास्त कानून लाया गया जिसके अंतर्गत एक निश्चित तिथि को सूर्यास्त होने से पहले जमीदारों को भूमि का लगान सरकार को देना होता था नहीं तो उनकी जमीन नीलाम कर दी जाती थी।

                        -रैयतवाड़ी व्यवस्था-
    रैयतवाड़ी व्यवस्था भू राजस्व को वसूल करने की एक प्रणाली थी जिसके जन्मदाता टॉमस मुनरो और कैप्टन रीड माने जाते हैं, सर्वप्रथम 1792 ई० में मद्रास प्रेसिडेंसी में तमिलनाडु के बारामहल क्षेत्र में कैप्टन रीड ने इस व्यवस्था को लागू किया था। दक्षिण भारत में बड़े-बड़े भूखंडों के अभाव एवं जमीदारों के अभाव के कारण रैयतवाड़ी व्यवस्था लागू की गई।
    इसकी मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
    1.रैयतवाड़ी व्यवस्था संपूर्ण ब्रिटिश भारत के 51% क्षेत्र पर लागू की गई थी जिसके अंतर्गत मद्रास,पूर्वी बंगाल, मुंबई के कुछ हिस्से,असम तथा कुर्ग(कर्नाटक में स्थित) आते थे।
    2.इस व्यवस्था में किसानों को भूमि का मालिक मान लिया गया तथा वह भू राजस्व सीधे सरकार को देते थे तथा जमीदारोंं जैसा कोई बिचौलिया वर्ग उपस्थित नहीं था।
    3.इसमें सरकार रैयतो को पट्टे प्रदान करती थी जिससे जो किसान भूमिहीन थे वह अपनी आजीविका कमा सकें।
    4.इसमें भू राजस्व का निर्धारण उपज के आधार पर न करके भूमि के क्षेत्रफल के आधार पर किया जाता था।
    5.एक निश्चित समय पर भूमि का लगान न देने पर किसानों को उनकी जमीन से बेदखल कर दिया जाता था।
     इस व्यवस्था में एक तरफ भूमि पर किसानों का मालिकाना हक मान लिया गया परंतु कर की दर बहुत अधिक होने के कारण या प्राकृतिक आपदा के समय जब किसान कर की अदायगी नहीं कर पाते थे तो उनसे जमीन छीन ली जाती थी जिससे किसानों की स्थिति काफी खराब हो जाती थी। इस प्रकार यह व्यवस्था भी किसानों के लिए अहितकर ही सिद्ध हुई।

                         -महालवाड़ी व्यवस्था-
    स्थाई बंदोबस्त और रैयतवाड़ी बंदोबस्त की तरह ही महालवाड़ी व्यवस्था भी भू राजस्व वसूल करने की एक प्रणाली थी। 1819 में हॉल्ट मैकेंजी ने प्रत्येक ग्राम अथवा महल को भू राजस्व के संग्रहण की इकाई मानते हुए महालवाड़ी प्रणाली को लागू किया।

    इसकी प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
    1. इस पद्धति में भू राजस्व की व्यवस्था कृषक के साथ न करके प्रत्येक ग्राम अथवा महल के साथ स्थापित की जाती थी।
    2. इस व्यवस्था में ग्राम समाज ही सम्मिलित भूमि तथा अन्य भूमि का स्वामी होता था।
    3. इसके अंतर्गत अगर कोई व्यक्ति अपनी भूमि छोड़ देता था तो ग्राम समाज उस भूमि को संभाल लेता था।
    4. यह व्यवस्था उत्तर प्रदेश( संयुक्त प्रांत), मध्य प्रदेश तथा कुछ परिवर्तनों के साथ पंजाब में लागू की गई
    5. यह व्यवस्था कुल ब्रिटिश भारत के 30% भाग पर लागू थी।
    6. इस प्रकार इस व्यवस्था में भू राजस्व का निर्धारण संयुक्त रूप से किया जाता था।
      अन्य भू राजस्व व्यवस्थाओं की भांति यह व्यवस्था भी कृषकों के लिए हानिकारक ही सिद्ध हुई क्योंकि इसमें भू राजस्व का निर्धारण अनुमान के आधार पर किया जाता था जिससे अंग्रेज मनमाने तरीके से भू राजस्व का निर्धारण कर अधिक से अधिक कर वसूल करने की कोशिश करते थे।

         धन-निष्कासन का सिद्धांत(Drain Theory)
    1. इस सिद्धांत को प्रस्तुत करने का श्रेय दादा भाई नौरोजी (ग्रैंड ओल्डमैन ऑफ इंडिया) को जाता है जिन्होंने सर्वप्रथम 1867 में अपने लेख "इंग्लैंड डेब्ट टू इंडिया" में इसका वर्णन किया था।
    2. धन निष्कासन से तात्पर्य है कि भारत से धन का ब्रिटेन की ओर एक तरफा प्रवाह और बदले में भारत को इसका कोई प्रतिफल प्राप्त नहीं होता था। धन की निकासी अंग्रेजों द्वारा 1757 के बाद से लगातार की जाती रही।
    3. 1901 में दादा भाई नौरोजी द्वारा लिखित पुस्तक "द पॉवर्टी एंड अन ब्रिटिश रूल इन इंडिया' में धन निष्कासन के सिद्धांत का विस्तृत वर्णन किया। 
    4. दादा भाई ने बताया कि 1867-68 में  की भारतीयों की प्रति व्यक्ति आय 20 रुपये/ वर्ष थी।
    5. धन निष्कासन भारत की गरीबी एवं विपन्नता का प्रमुख कारण था धन निष्कासन के स्रोतों की पहचान निम्नलिखित रुप में की गई है- 
        कंपनी के कर्मचारियों को दिए जाने वाले वेतन, भत्ते व पेंशन
        ०  सेना पर किया जाने वाला खर्च- रक्षा बजट
          कोर्ट आफ डायरेक्टर्स एवं बोर्ड आफ कंट्रोल को प्रदान किये जाने वाले वेतन भत्ते।
        निजी व्यापार से अंग्रेजों को होने वाला लाभ।
        उपहार से प्राप्त धन।
        सार्वजनिक ऋण पर ब्याज भुगतान
        विदेशी पूंजी निवेश पर दिया जाने वाला ब्याज- जैसे रेलवे में ब्रिटिश कंपनियों द्वारा किए गए पूंजी निवेश पर 5% ब्याज की गारंटी देना।
        
    6. आर.सी दत्त द्वारा लिखित पुस्तक "द इकोनामिक हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया" में अंग्रेजों के समय भारतीय अर्थव्यवस्था का विस्तृत वर्णन किया गया है साथ ही इसमें धन निष्कासन सिद्धांत के बारे में भी बताया गया है।
    7. 1896 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में कांग्रेस ने धन निष्कासन के सिद्धांत को अपनी मंजूरी दी।
    8. महादेव गोविंद रानाडे एवं गोपाल कृष्ण गोखले ने भी धन निष्कासन सिद्धांत के विषय में अंग्रेजों की आलोचना की है।

        भारतीय उद्योगों का विनाश(वि-औद्योगिकरण)
    अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भारत में लघु एवं कुटीर उद्योग शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्रों में फैले हुए थे जिसके अंतर्गत हस्तशिल्प, सूती एवं रेशमी कपड़ा उद्योग,लकड़ी उद्योग,धातु उद्योग आदि आते थे। परंतु अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों के कारण इन उद्योगों का पतन हो गया और उनके स्थान पर नवीन उद्योगों की स्थापना नहीं हुई जिसे वि-औद्योगिकरण की संज्ञा दी जाती है।
    उद्योगों के पतन के कारण-
    1. देशी राजे-रजवाडों के पतन के कारण उद्योगों के संरक्षक एवं खरीददारों का पतन हो जाना।
    2. भारतीय वस्तुओं पर ब्रिटेन में प्रतिबंध लगाया जाना जैसे- ब्रिटेन में भारतीय माल पर अधिक आयात शुल्क आरोपित करना।
    3. रेलवे का सुदृढ़ीकरण, जिसके द्वारा भारत के आंतरिक भागों से कच्चे माल को बंदरगाह तक पहुंचाकर ब्रिटेन भेजना एवं तैयार माल को भारतीय बाजारों में बेचना आसान हो गया।
    4. ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति।
    5. ददनी प्रथा- जिसके अंतर्गत अंग्रेज भारतीय उत्पादको को अग्रिम राशि देकर करार कर लेते थे कि वे उत्पादन अंग्रेजों को ही बेचेंगे।अंग्रेज़ सस्ते दामों पर भारतीयों का सामान खरीदते थे जिससे उत्पादकों को बहुत नुकसान हुआ।
    6. अंग्रेज़ों की सामाजिक एवं शैक्षणिक नीतियों के कारण एक वर्ग ऐसा तैयार हो गया था जो अंग्रेजी माल को ही वरीयता देता था।

                         -कृषि का वाणिज्यीकरण-
    अंग्रेजों के शासन से पूर्व भारत कृषि की दृष्टि से आत्मनिर्भर देश था परन्तु अंग्रेजों के आगमन के बाद कृषि के वाणिज्यीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ होती है जिसके अंतर्गत नकदी फसलों जैसे चाय,जूट,कपास, कॉफी, नील इत्यादि की खेती पर बल दिया जाता है। इन फसलों के उत्पादन से अंग्रेजों को ही फायदा होता था क्योंकि यह ब्रिटेन की औद्योगिक जरूरतों को पूरा करती थी। किसानों को मजबूरीवश इन फसलों का उत्पादन करना होता था तथा इनके उत्पादन के लिए किसानों को अग्रिम राशि देकर समझौता कर लिया जाता था (ददनी प्रथा) इससे किसान ऋण के जाल में फस जाते थे आगे चलकर इन्हीं कारणों से अंग्रेजों के विरुद्ध किसान विद्रोह दिखाई देते हैं।

                           -रेलों का विकास- 
    अंग्रेजों का तर्क था कि भारत में रेलवे का विकास औद्योगिक एवं आर्थिक विकास को बढ़ावा देगा। परंतु इसके पीछे अंग्रेजों के सैन्य एवं व्यवसायिक हित छुपे हुए थे।
    रेलों के माध्यम से भारत के आंतरिक भागों से कच्चे माल को बंदरगाहों तक लाकर उसका निर्यात ब्रिटेन को करते थे वहीं तैयार माल को भारतीय बाजार में रेलों के माध्यम से आसानी से पहुंचाया सकता था इसके साथ ही विद्रोह की स्थिति में रेलवे द्वारा आसानी से सेना को भेजा जा सकता था।
    इसके अतिरिक्त विदेशी पूंजीपतियों ने रेलवे में बड़ा निवेश किया था तथा उन्हें  पूंजी निवेश पर 5% लाभ की गारंटी दी जाती थी।
    इस प्रकार भारत में रेलवे का विकास अंग्रेजों के आर्थिक हितों की पूर्ति करना ही था।
    नोट:- भारत में प्रथम रेलवे 1853 ई० में मुंबई से ठाणे के बीच चलाई गई थी।


    No comments:

    Post a Comment

    शिक्षक भर्ती नोट्स

    General Knowledge

    General Studies