• 17.7.20

    आधुनिक भारत के किसान आंदोलन

    आधुनिक भारत के किसान आंदोलन-
    19वीं एवं 20वीं शताब्दी में देश के विभिन्न भागों में किसानों द्वारा आंदोलन किए गए, जिसके प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-
    1. भू- राजस्व की नवीन व्यवस्थाओं (स्थायी बंदोबस्त,महालबाड़ी और रैय्यतबाड़ी) द्वारा अत्यधिक लगान की वसूली एवं आर्थिक शोषण।
    2. नए जमींदार,महाजन एवं साहूकार वर्ग के उदय से किसानों की ऋणग्रस्तता में वृद्धि।
    3. कृषि का वाणिज्यीकरण
    4. प्रशासनिक एवं न्यायिक भ्रष्टाचार।
    5. हस्तशिल्प एवं अन्य उद्योगों की बर्बादी से हस्तकार,दस्तकार बेरोजगार हो गए और कृषि पर दबाव बढ़ा।


    इन सभी कारणों के परिणामस्वरूप किसानों द्वारा विद्रोह किये गए जिनका विवरण इस प्रकार है-

    नील आंदोलन(1859- 60 ई०)
    यह आंदोलन बंगाल, बिहार में नील बागान मालिकों के विरोध में किया गया जो किसानों को जबरदस्ती नील पैदा करने के लिए बाध्य करते थे।
    इस आंदोलन की शुरुआत 1859 में बंगाल के नादिया स्थान से हुई। इस आंदोलन को नेतृत्व दिगंबर विश्वास और विष्णु विश्वास ने प्रदान किया था।
    जल्द ही यह आंदोलन बंगाल बिहार के एक बड़े क्षेत्र में फैल गया तथा सामूहिक हड़ताल एवं हिंसक घटनाएं इस दौरान की गई। किसानों की एकजुटता के कारण बंगाल में 1860 तक नील के सभी कारखाने बंद हो गए।
    अंग्रेजों को इस समस्या का समाधान करने के लिए "नील आयोग" का गठन किया जिसके अनुसार रैय्यतों को नील की खेती करने के लिए बात नहीं किया जाएगा तथा सभी विवाद कानूनी तरीके से निपटाये जाएंगे।
    हिंदू पैट्रियॉट के संपादक हरिश्चंद्र मुखर्जी इस आंदोलन में सम्मिलित हुए थे।
    दीनबंधु मित्र का नाटक "नील दर्पण" नील आंदोलन पर ही आधारित है।
    नोट:- नील आंदोलन के दौरान किसानों द्वारा की गई हड़ताल भारतीय इतिहास की प्रथम किसान हड़ताल थी।

    पाबना विद्रोह(1873- 1885 ई०)
    बंगाल का पाबना क्षेत्र पटसन की कृषि के लिए प्रसिद्ध था यहां पर जमीदारों द्वारा किसानों का शोषण किया जाता था।
    इस आंदोलन का प्रमुख कारण जमीदारों द्वारा अत्यधिक लगान की वसूली तथा किसानों का मालिकाना हक छीन लेना था।
    1873 में पाबना के युसूफशाही परगने में एक "किसान संघ" की स्थापना की गई। इससे किसानों को संगठित करने ,लगान न देने एवं जमीदारों के विरुद्ध मुकदमा करने जैसे कार्य किए।
    किसान आंदोलनकारियों का मुख्य उद्देश्य साहूकारों के पास रखेंगे ऋणपत्रों, डिग्रियों आदि को छीनकर नष्ट करना था।
    इस आंदोलन की प्रमुख विशेषता कानून के दायरे में रहकर इसका विस्तार था परंतु कुछ स्थानों पर हिंसक रूप(भीमरथी तालुका का 'सूपा' कस्बा) ले लेता है।
    इस आंदोलन के प्रमुख नेता ईशानचंद्र राय, केशवचंद्र राय और शंभूपाल थे।
    1885 ई० सरकार द्वारा पारित बंगाल टेनेन्सी एक्ट के बाद यह आंदोलन समाप्त हो गया जिसमें यह व्यवस्था दी गई थी कि सिविल प्रोसीजर के अंतर्गत किसानों की जमीनों को जब्त नहीं किया जाएगा।
    बंगाल के बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा पाबना विद्रोह का समर्थन किया गया था।
    बंकिम चंद्र चटर्जी और आर.सी दत्त ने भी इस विद्रोह को अपना समर्थन दिया था।

    दक्कन विद्रोह (1874- 75 ई०)
    यह विद्रोह पुणे,अहमदनगर ,सोलापुर क्षेत्र में हुआ जहां पर बाहरी जमीदारों और साहूकारों (मारवाड़ी एवं गुजराती) द्वारा किसानों का शोषण किया जाता था।
    इसका प्रमुख कारण किसानों से अत्यधिक लगान की वसूली तथा फसल खराब होने की स्थिति में भी किसानों पर कर अदायगी का दबाव डालना, जिससे किसान साहूकारों के ऋण चंगुल में फँस जाते थे।
    यह विद्रोह 1874 में शिरूर तालुका के करडाह गांव में महाजन कालूराम पर किसानों के हमले से प्रारंभ हुआ।
    इस विद्रोह में किसानों ने इन बाहरी जमीदारों एवं साहूकारों का बहिष्कार किया तथा महाजनों पर हमले किये।
    इस विद्रोह पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए दक्कन उपद्रव आयोग का गठन किया गया।
    कृषक राहत अधिनियम-1879 द्वारा किसानों को जमीदारों से संरक्षण प्रदान किया गया। जिसके अंतर्गत किसानों की गिरफ्तारी एवं कारावास पर रोक लगाई गई।

    बिजौलिया किसान आंदोलन(1897- 1941 ई०)
    बिजोलिया राजस्थान के किसानों का आंदोलन था।
    यह एक संगठित किसान आंदोलन था जो लगभग 44 वर्षों तक चलता रहा।
    यह प्रथम अहिंसात्मक किसान आंदोलन माना जाता है।
    इस आंदोलन के सबसे महत्वपूर्ण नेता विजय सिंह पथिक थे।

    एका आंदोलन(1921- 22 ई०)
    यह उत्तरप्रदेश के अवध क्षेत्र में किसानों द्वारा किया गया आंदोलन था।
    इसका प्रमुख कारण अत्यधिक लगान तथा लगान न दे पाने की स्थिति में भू स्वामियों द्वारा किसानों की जमीन छीन लेना था।
    इस आंदोलन के प्रमुख नेता मदारी पासी और सहरेब थे।

    मोपला विद्रोह(1921ई०)
    यह विद्रोह केरल के मालाबार क्षेत्र में मोपला मुस्लिम किसानों द्वारा जमीदारों के खिलाफ किया गया। जमीदारों में अधिकांश हिंदू भूस्वामी थे।
    मोपला किसानों ने अत्यधिक लगान एवं आर्थिक शोषण के खिलाफ विद्रोह किया।
    इस विद्रोह के नेता अली मुसलियार थे जो खिलाफत आंदोलन एवं स्थानीय कांग्रेस कमेटी के प्रमुख नेता थे तथा ही मुसलमानों के धर्मगुरु भी थे।
    बाद में गांधी जी ने इस आंदोलन को अपना समर्थन प्रदान किया।
    इस आंदोलन में किसानों ने सरकारी खजाने को लूटा तथा दस्तावेजों को नष्ट कर दिया इसके अतिरिक्त इस आंदोलन को धार्मिक रूप देने की भी कोशिश की गयी।

    नोट:- 19वीं शताब्दी में इस क्षेत्र में मोपलाओं के समय-समय पर अनेक विद्रोह(1836- 1854 ई० के बीच 22 विद्रोह) हुए थे।
           "मोपला" नामक उपन्यास के लेखक 'वी.डी.सावरकर' हैं, जिन्होंने मोपला विद्रोह के बारे में विस्तृत वर्णन किया है।

    पोनप्पा वायलार आंदोलन(1946 ई०)
    ० यह आंदोलन किसानों एवं मजदूरों द्वारा केरल के अलेप्पी जिले में किया गया था।
    ० इसका प्रमुख कारण अत्यधिक लगान की वसूली था।

    चंपारण सत्याग्रह(1917 ई०)
    बिहार के चंपारण में नील बागान मालिकों ने किसानों से एक समझौता कर रखा था जिसके तहत किसानों को अपनी कृषि योग्य भूमि के 3/20 वें भाग पर नील की खेती करनी होती थी इस पद्धति को "तिनकठिया पद्धति" कहते थे।
    रासायनिक रंगों की खोज के कारण नील के बाजार में गिरावट आने से अंग्रेज़ नील बागान मालिक नील कारखाने बंद करने लगे और समझौते से किसानों को मुक्त करने के लिए नील उत्पादकों ने भारी लगान की मांग की जिसके कारण किसानों ने विद्रोह शुरू कर दिया।
    चंपारण के किसान राजकुमार शुक्ल लखनऊ में गांधी जी से मिले और उन्हें चंपारण की समस्या सुलझाने के लिये चंपारण आने का आग्रह किया।
    गांधीजी ने चंपारण पहुंचकर किसानों की समस्या को समझा परंतु वहां के अंग्रेज अधिकारियों ने उन्हें तुरंत यहां से जाने का आदेश दिया परंतु गांधी जी द्वारा सत्याग्रह आरंभ किए जाने के निर्णय से डरकर अंग्रेजों ने अपना आदेश वापस ले लिया तथा इस समस्या के समाधान के लिए एक आयोग गठित किया जिसके सदस्य गांधी जी भी थे।
    आयोग के निर्णय के अनुसार तिनकठिया पद्धति समाप्त कर दी गई तथा वसूले गए धन का 25% भाग किसानों को लौटा दिया गया।
    इस आंदोलन में गांधीजी के साथ राजेंद्र प्रसाद,महादेव देसाई,नरहर पारिख,बृजकिशोर,जे.वी.कृपलानी आदि ने सहयोग किया था।
    गांधीजी द्वारा भारत में सत्याग्रह के प्रयोग की यह प्रथम घटना थी
    चंपारण सत्याग्रह के दौरान ही रविंद्रनाथ टैगोर ने गांधी जी को "महात्मा" की उपाधि दी।

    खेड़ा सत्याग्रह(1918 ई०)
    ० यह गुजरात के खेड़ा जिले में किसानों द्वारा किया गया विद्रोह था।
    अकाल के कारण किसानों की फसल बर्बाद हो गई लेकिन सरकार फिर भी किसानों से लगान बसूल कर रही थी,किसानों ने लगान माफ करने का आग्रह किया परंतु सरकार ने उनकी एक न सुनी इसके विरोध में किसानों ने विद्रोह कर दिया।
    खेड़ा में किसानों का नेतृत्व गांधी जी ने किया जिसमें उनके सहयोगी सरदार वल्लभ भाई पटेल तथा इंदुलाल याज्ञनिक थे।
    गांधी जी ने किसानों को लगान न अदा करने की सलाह दी।
    इस सत्याग्रह में "गुजरात सभा" ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की इसके प्रमुख गांधी जी थे।
    गांधी जी का यह प्रथम वास्तविक किसान सत्याग्रह था। गांधी जी के सत्याग्रह के सामने सरकार विवश हो गई और एक आदेश जारी किया कि लगान उसी से वसूला जाए जो देने में समर्थ हो।

    नोट:-  लगान न अदा करने का नारा सबसे पहले स्थानीय नेता मोहन लाल पांडया द्वारा दिया गया था।
              "सर्वेंट ऑफ़ इंडिया सोसाइटी" नामक संस्था ने इस सत्याग्रह का समर्थन किया था।

    बारदोली सत्याग्रह(1928 ई०)
    ० 1928 ई० में  गुजरात के सूरत जिले के बारदोली तालुका में लगान न देने का आंदोलन चलाया गया।
    सरकार ने कपास की कीमत गिरने के बाद भी लगान में 30% की वृद्धि कर दी थी जिससे किसानों ने विद्रोह कर दिया।
    इस आंदोलन का नेतृत्व सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया जिसमें उनका सहयोग मनीबेन पटेल ने किया था।
    इस आंदोलन में गुजरात के कुनबी- पाटीदार जाति के किसानों के साथ कालिपराज जनजाति के लोगों ने भी हिस्सा लिया।
    कालिपराज जनजाति के लोग "हाली पद्धति" के अंतर्गत उच्च जाति के लोगों के पुश्तैनी मजदूर के रुप में कार्य करते थे जहां इनका अत्यधिक शोषण किया जाता था।
    ० सरदार पटेल द्वारा "लगान न अदायगी" हेतु किसानों को इकट्ठा किया गया। धीरे-धीरे आंदोलन जोर पकड़ने लगा और सरकार ने ब्रूमफील्ड और मैक्सवेल के नेतृत्व में एक जांच कमेटी बनाई।
    इस जांच कमेटी ने 30% लगान वृद्धि को अनुचित बताया और उसके स्थान पर लगान कम करके 6.03%  कर दिया।
    बारदोली सत्याग्रह के समर्थन में के.एम.मुंशी और लालजी नारंजी ने मुंबई विधान परिषद की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था।
    बारदोली की महिलाओं ने वल्लभ भाई पटेल को "सरदार" की उपाधि प्रदान की।

    तेभागा आंदोलन(1946 ई०)
    यह बंगाल का एक सशक्त किसान आंदोलन था जिसमें बटाईदारों ने भू स्वामियों के विरुद्ध आंदोलन किया।
    इस आंदोलन में बटाईदारों की मांग थी कि उन्हें फसल उत्पादन का 2/3 हिस्सा मिले तथा एक तिहाई भाग(तिभागा-1/3 भाग) कर के रूप में भू स्वामियों को देना पड़े। उनकी यह मांग फ्लाइड कमीशन के अनुरूप थी।
    इस आंदोलन का नेतृत्व 'कम्पाराम' और 'भवन सिंह' जैसे नेताओं ने किया।
    इस आंदोलन में विरोध स्वरूप किसानों ने फसल काटकर उसका संपूर्ण उत्पादन अपने पास रख लिया तथा भूस्वामी कुछ नहीं दिया।
    इस आंदोलन का प्रमुख नारा "तिभागा चाई" था अर्थात हमें 2/3 हिस्सा चाहिए।
    परंतु अंग्रेजों ने इस आंदोलन को दबा दिया।

    तेलंगाना आंदोलन(1946- 1951 ई०)
    ० यह आंदोलन तेलंगाना में किसानों द्वारा चलाया गया और यह आज़ादी  के बाद भी चलता रहा।
    ० द्वितीय विश्व युद्ध के समय वस्तुओं के दाम काफी बढ़ गए थे परंतु सरकार द्वारा अत्यधिक लगान वसूली की जा रही थी जिस कारण लोगों ने विद्रोह कर दिया।

    वर्ली आंदोलन(1945 ई०)
    ० यह महाराष्ट्र के वर्ली में चलाया गया आंदोलन था।
    ० साहूकारों के विरोध में किसानों ने आंदोलन किया था।

              अवध किसान सभा(1918 ई०)

    अवध क्षेत्र में होमरूल लीग के नेताओं ने किसानों को संगठित करने का कार्य किया ताकि वह जमीदारों एवं साहूकारों के शोषण के विरुद्ध आवाज उठा सकें।

    गौरीशंकर मिश्र,मोतीलाल नेहरू,मदन मोहन मालवीय और इंद्र नारायण द्विवेदी के प्रयासों से 'उत्तरप्रदेश किसान सभा' का गठन फरवरी 1918 में किया गया। इस सभा ने किसानों के पक्ष में जमींदारों के विरुद्ध आंदोलन किये।

    खिलाफत आंदोलन के मुद्दे पर उत्तरप्रदेश किसान सभा में मतभेद पैदा हो गया जिसके कारण बाबा रामचंद्र के प्रयत्न से अक्टूबर 1920 में 'अवध किसान सभा' का गठन किया गया।

    अवध किसान सभा को शक्तिशाली बनाने का कार्य जवाहरलाल नेहरू,गौरीशंकर मिश्र,माताबदल पांडे आदि ने किया।

    कुछ समय बाद 'उत्तर प्रदेश किसान सभा' का विलय 'अवध किसान सभा' में हो जाता है।

    अवध किसान सभा ने जमीदारों और ताल्लुकेदारों के खिलाफ आंदोलन किये ,इनमें एक प्रसिद्ध आंदोलन "एका आंदोलन" था जो जमीदारों के खिलाफ चलाया गया था जिसके नेता मदारी पासी और सहरेब थे।

           अखिल भारतीय किसान सभा(1936 ई०)

    सविनय अवज्ञा आंदोलन के बाद अप्रैल 1936 ईस्वी में लखनऊ में अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना की गई।

    इसके अध्यक्ष स्वामी सहजानंद सरस्वती तथा महासचिव एन.जी. रंगा चुने गये। स्वामी सहजानंद सरस्वती बिहार किसान सभा के संस्थापक थे जबकि एन.जी. रंगा आंध्र प्रदेश किसान आंदोलन के अग्रणी नेता थे।

    1936 ई० में कांग्रेस का सम्मेलन फैजपुर में हुआ ,इसके समानांतर ही अखिल भारतीय किसान सभा का भी सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसकी अध्यक्षता एन.जी.रंगा ने की थी।इस सम्मेलन में किसान संगठनों को मान्यता देने एवं भू राजस्व की दर को 50% कम करने की मांग की गई थी।

    अखिल भारतीय किसान सभा से राष्ट्रीय स्तर के कई नेता भी जुड़े, पंडित नेहरू ने इस सभा को संबोधित किया था इसके अतिरिक्त इंदूलाल याज्ञनिक,जयप्रकाश नारायण,राम मनोहर लोहिया आदि ने इस सम्मेलन में भाग लिया था।

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